श्री गणेश
गणेश का अर्थ है मन ! मन को ही गणेश कहते
है !मन ही विध्नहर्ता है मन विध्न्क्रता है
शास्त्र ही कहते की गणेश
गोरी पुत्र अर्थात शक्ति , उर्जा का मल से गणेश
की उत्पति हुई ! पार्वती के मल से
गणेश की उत्पति ,हुई ! अर्थात
जो हमारी उर्जा है उसके निचे के छोर में
जहा उर्जा का मल होता है वहा मन
की उत्पति होती है !
उर्जा के मल की एक सीमा तक मन
विध्नहर्ता है और जब उर्जा में मल की मात्र बढ़
जाती तब मन के साथ अहं जुड़ जाता है ! तब
यही मन विध्न्क्रता बन जाता है !
जहा तक मन पवित्र है वहा तक यह मन भगवान गणेश है
और जैसे ही मन दूषित हो जाता तब यह शैतान
बन जाता है ! आप विध्नकर्ता बन कर भी हासिल
तो कर सकते लेकिन जो भी हासिल करोंगे उससे
विध्न
मिलता रहेगा अशांति बनी रहेगी क्योकि विध्न
मन हासिल किया है !
सभी शुभ कार्यो में श्री गणेश
को स्मरण किया जाता है स्मरण का अर्थ ही होश
है ,ध्यान है और होश में जब भी कोई कार्य
किया जाता है वह शुभ हो जाता है ! लोग कहते
की गणेश का स्मरण
नही किया इसलिए विध्न आ गया ! अर्थात कार्य
की शरुआत बेहोश में
की जो किया वः सब बेहोश में किया ! मन उस कार्य
के साथ नही था मन कही और
भटक रहता था इसलिए यह विध्न पड़ा !
जब तुम होश में जो भी कर्म करोंगे उसमे
उतनी उर्जा खर्च
जितनी होगी जो उस कार्य के
जरूरी है शेष उर्जा कर्म करते करते रूपांतरण
हो जाती है !
जिसे श्री भगवन कृष्ण ने निष्काम कर्म कहा है
वह होश में किया कर्म निष्काम कर्म हो जाता है !
सभी पाप बेहोश में होते है ! बेहोश में
उर्जा सिर्फ खर्च होती लेकिन रूपन्तर
नही होती है !बेहोश में तुम
ज्यादा कार्य कर सकते है, लेकिन होश में तुम ज्यादा कार्य
नही कर सकते क्योकि बेहोश में
शरीर एक मशीन
की तरह काम करता है ! लेकिन होश में आप
उतना ही काम कर सकते है जितना आपके
जीवन जीने के विषय वस्तु
आवश्यक है ! होश में उतना पा सकते है
जितना आपको जीवन जीने के लिए
जरूरी है !जितना जरूरी है
उतना पाना पुन्य है ,शुभ है ,आपकी पात्रता से
ज्यादा पाना है तो बेहोश कर्म करना ज्यादा मिलेगा !और यह
परमात्मा का नियम की जरूरत से ज्यादा हासिल
हो जाये वह चाहे ज्ञान या धन हो तो उसमे अहंकार
की उत्पति होनी ही है
उसे कोई रोक नही सकता है और अहंकार आते
बेहोशी आ जाती है बुद्धि नाशवान
हो जाती है ! नाशवान बुद्धि और बेहोश में
जो भी कर्म करोंगे उससे नरक और दुःख ,
की उत्पति होनी है उसे कोई रोक
नही सकता है तब in दुखो का फायदा पाखंड
उठाता है ! यहा पर जो पाखंड है
वः पैदा नही होता यह सब हमारे
ही कर्मो से बनते है ,
क्योकि हमारी बुद्धि नाशवान
हो जाती तब हम इन पाखंड के शरनो में
जाना पड़ता है ! नाना प्रकार कर्म कांड करने पड़ते है अनेको तप
करने पड़ते है ! क्योकि बुद्धि नाशवान
हो चुकी इसलिए तपाये बिना शुद्ध
होगी नही है !
इसलिए कोई लोग कहते है की फलाना महात्मा ने
कठोर तप किया है कठोर ताप इस बात का चुसक है
की बुद्धि ज्यादा नाशवान थी इसलिए
यह कठोर तप करना पड़ा अन्यथा परमत्मा तो हमारे साधरण कर्म
ही उपलभ है ! सिर्फ निष्काम कम और होश
कर्म में ही परमात्मा मिल जाता है ! कोई बड़े ढोग
की आवश्यकता ही नही है
लेकिन नाशवान बुद्धिमान हमेशा उलटे सीधे
ही तप करेगा क्योकि उसने विवेक तो खो दिया है अब
उसे शास्त्र पर विश्वाश होगा अपने अंदर का विश्वाश
तो खो सुका है ! इसलिए वह शास्त्र
की ही पूजा करेगा क्योकि भूतकाल से
बेहोशी के कर्म से अँधा हो गया है ! भूतकाल के
भगवान को ही याद करेगा की अब
तो मार्ग दे विवेक दे , तो नाशवान बुद्धिमान हमशा भूतकाल में
ही उलझता है और जिसे विवेक बुद्धि को नाश
करना वह व्यक्ति भविष्य की चिता में डूबता ह